Raghuvir Sahay : रघुवीर सहाय की कविताएं | Bihar Board 12th Hindi
रघुवीर सहाय का जन्म उत्तर प्रदेश लखनऊ में हुआ था उनकी संपूर्ण शिक्षा लखनऊ में ही हुई थी वहीं से उन्होंने 1951 में अंग्रेजी साहित्य में एमo एo किया । रघुवीर सहाय पेशे से एक पत्रकार थे प्रारंभिक में उन्होंने सहायक संपादक के रूप में काम किया फिर भी आकाशवाणी के समाचार विभाग में रहे कुछ समय तक वे हैदराबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका कल्पना के संपादक से भी जुड़े रहे और कई वर्षों तक उन्होंने दिनमान का संपादक किया।
रघुवीर सहाय नई कविता के कवि हैं उनकी कुछ कविताएं अज्ञेय द्वारा संपादित दूसरा सप्तक में संकलित है कविता के अलावा उन्होंने रचनात्मक और विवेचनात्मक गद्य भी लिखा करते थे उनके काव्य संसार में आत्म पारक अनुभवों की जगह जनजीवन में अनुभवों की रचनात्मक अभिव्यक्ति अधिक है वे व्यापक सामाजिक संदर्भों के निरीक्षण अनुभव और दिशा को कविता में व्यक्त करते हैं रघुवीर सहाय ने काव्य रचना में अपनी प्रकार दृष्टि का सर्वजनात्मक उपयोग किया है वे मानते हैं कि अखबार की खबर के भीतर दबी और छुपी ऐसे अनेक खबरें होती है जिसमें मानवीय पीड़ा छिपी रह जाती है उसे छिपी हुई मानवीय पीड़ा की अभिव्यक्ति करना कविता का दायित्व है।
इसका दृष्टि के अनुरूप ही उन्होंने अपनी नई काव्य भाषा का विकास किया है वह अनावश्यक शब्दों के प्रयोग से प्रयास पूर्वक बचते हैं अनुभव की आवेग रहित अभिव्यक्ति उनकी कविता की प्रमुख विशेषताएं हैं रघुवीर सहाय ने मुक्त छंद के साथ-साथ छंद में भी कब रचना की है जीवन अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए भी कविता की रचना में कथा या वृतांत का उपयोग करते हैं।
रघुवीर सहाय की प्रमुख कृतियां
रघुवीर सहाय की प्रमुख कृतियां सीढियों पर धूप में, आत्महत्या के विरोध, हंसो हंसो जल्दी हंसो और लोग भूल गए हैं छः खंडों में रघुवीर सहाय रचनावली प्रकाशित हुई है जिसमें उनकी लगभग सभी रचनाएं संग्रहित है लोग भूल गए हैं काव्य संग्रह पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुआ है।
वसंत आया
जैसा बहन ‘दा’ रहती है
ऐसे किसी बंगले के किसी तरू पर कोई चिड़िया कुउकी
चलती सड़क के किनारे लाल बजरी पर चूरमुराए पाव तले
ऊंचे तरुवर से गिरे
बड़े-बड़े पियराए पाते
कोई छह बजे सुबह जैसे गर्म पानी से नहाई हो –
खुली हुई हवा आई, फिरकी – सी आई चली गई।
ऐसे फुटपाथ पर चलते-चलते चलते।
कल मैंने जाना की बसंत आया।
और यह कैलेंडर से मालूम था
अमुक दिन अमुक बार मदन महीने की हावेगी पंचमी
दफ्तर में छुट्टी थी यह था प्रमाण
और कविताएं पढ़ने रहने से यह पता था
की दहर-दहर दहकेंगे कही ढाक के जंगल
आम बैर आवेंगे
रंग-रस-रंध्र से लदे फंदे दूर से विदेश के
वे नंदन-वन होवेंगे यशस्वी
मधुमस्त पिक भौर आदि अपना अपना कृतित्व
अभ्यास करके दिखावेदेंगे
यही नहीं जाना था कि आज के नगण्य दिन जानूंगा
जैसे मैंने जाना की बसंत आया।
तोड़ो
तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये पत्थर ये चट्टान
यह झूठे बंधन टूटे
तो धरती को हम जानें
सुनते हैं मिट्टी में रस है जिससे उगते दूब है
अपने मन में मैदाने पर व्यापी कैसे ऊब है
आधे आधे गाने
तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये असर बंजर तोड़ो
ये चरती परती तोड़ो
सब खेत बनाकर जोड़ो
मिट्टी में रस होगा ही जब पोसेगी वह बीज को
हम इसको क्या कर डालें इस अपने मन की बीज को?
गोड़ो गोड़ो गोड़ो
रघुवीर सहाय की कविता
बसंत आया कविता रहती है कि आज मनुष्य का प्रकृति से रिश्ता टूट गया है। बसंत ऋतु का आना अब अनुभव करने की वजह को कैलेंडर से जाना जाता है ऋतु में परिवर्तन पहले की तरह ही संभावित घटित होते रहते हैं पत्ते झड़ते हैं, कोपल फूटती है, हवा बहती है, डाक के जंगल देखते हैं, कोमल भ्रमण अपनी मस्ती में झूलती है पर हमारे निगाह उन पर नहीं जाती हम निरपेक्ष बने रहते हैं वास्तव में कभी ने आज के मनुष्य की आधुनिक जीवन की सहेली पर बयान किया है।
इस कविता की भाषा में जीवन की बिंदबना छिपी हुई है। प्रकृति के अंत तरंगता को व्यक्त करने के लिए कवि ने देशज शब्दों और क्रियो का भरपूर प्रयोग किया है अशोक मदन महिमा पंचमी नंदनवन जैसे परंपरा में रचे बसे जीवाणु भागों की भाषा में इस कविता को आधुनिकता के समान एक चुनौती की तरह खड़ा कर दिया है कविता में बिंबो और प्रतीक का भी सुंदर प्रयोग हुआ है।
तोड़ो उद्बोधनपरक कविता है इसमें कभी सृजन हेतु भूमि को तैयार करने के लिए चट्टानें असर और बंजारा को तोड़ने का आसान करता है प्रति को खेत में बदलना सृजन के ही प्रारंभिक परंतु अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया है यहां कई विध्वंस के लिए उकसाता सृजन के लिए प्रेरित करता है कविता का ऊपरी ढांचा सरल और प्रतीक है परंतु प्राकृतिक से मन की तुलना करते हुए कभी ने इसको नया आयाम दिया है यह बंजारा प्राकृतिक में है तो मानव मन में भी है कभी मन में व्याप्त ऊब तथा खीज को भी तोड़ने की बात करता है अर्थात उसे भी उर्वर बनाने की बात करता है मन की भीतर ऊब उम्र सृजन में बाधक है कभी सृजन का आकांक्षी है। इसलिए उसको भी दूर करने की बातें करता है इसलिए कभी मां के बारे में प्रश्न उठाकर आगे बढ़ जाता है इससे कविता का अर्थ है विस्तार होता है।
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